Same Sex Marriage: समलैंगिक विवाह की राह में सबसे बड़ी बाधा
सर्वोच्च न्यायालय में चल रही समलैंगिक "मैरिज" (इसे मैं विवाह नहीं कहना चाहता) की सुनवाई और वाद प्रतिवाद में नित नये मोड़ आ रहे हैं। सारा मामला सितंबर 2018 में, जब न्यायमूर्ति ए पी शाह ने होमोसेक्सुअल रिलेशन्स यानी समलैंगिक संबंधों को आपराधिक कृत्य की श्रेणी से बाहर कर दिया, उसी दिन से भारत में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। "विक्टोरियन नैतिकता" के अंतर्गत बनाए गये भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 377 को अवैध बताते हुए उन्होंने निर्णय दिया कि अगर दो वयस्क, चाहे वह एक ही लिंग के हों, यदि एकान्त में लैंगिक संबंध स्थापित करते हैं तो वह अपराध नहीं है। ध्यान देने की बात यह है कि उन्होंने सेक्शन 377 को निरस्त करते हुए दो वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को वैध करार दिया, किंतु उन्होंने इन्हें विवाह की अनुमति नहीं दी। इस "विजय" के बाद "एलजीबीटीक्यू कम्युनिटी (लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्विवर)" ने संघर्ष जारी रखा और उन्होंने भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 377 के निरपराधीकरण (डिक्रिमिनलाइजेशन) के बाद समलैंगिक विवाह की भी मांग रखी।
भारत सरकार ने शीर्ष अदालत से याचिकाओं को खारिज करने का आग्रह किया है, जिसमें कहा गया है कि विवाह केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच हो सकता है जो विषमलैंगिक हैं। कानून मंत्रालय ने अदालत में फाइलिंग में तर्क दिया, "समान सेक्स विवाह पति, पत्नी और बच्चों की भारतीय परिवार इकाई अवधारणा के साथ तुलनीय नहीं हैं।" सरकार का विचार है कि यह युग-युगान्तर की भारतीय मान्यताओं, परम्पराओं और संस्कृति के विरुद्ध है। इससे समाज में गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए इस विषय पर और व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता है। भारत के महान्यायवादी (Solicitor General) ने सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि "न्यायालय धार्मिक और सामाजिक मानदंडों में गहराई से अंतर्निहित देश की संपूर्ण विधायी नीति को नहीं बदल सकती है"। 102 पन्नों का एक और प्रपत्र प्रस्तुत करते हुए सरकार ने कहा कि "याचिकाएँ केवल शहरी अभिजात्य विचारों को दर्शाती हैं" और समान-सेक्स विवाह को मान्यता देने का अर्थ "कानून की एक पूरी शाखा का आभासी न्यायिक पुनर्लेखन" होगा। इसके अतिरिक्त इस विषय पर सभी राज्यों के विचार लेना आवश्यक है।
एकता के एक दुर्लभ प्रदर्शन में, भारत के सभी प्रमुख धर्मों - हिंदू, मुस्लिम, जैन, सिख और ईसाई के नेताओं ने भी समान लिंग संघ की याचिका का विरोध किया, जिनमें से कई ने जोर देकर कहा कि विवाह "संतानोत्पत्ति के लिए है, मनोरंजन के लिए नहीं"। (Marriage is for procreation and not for recreation).
पिछले महीने, उच्च न्यायालय के 21 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों
ने एक खुला पत्र लिखा था जिसमें कहा गया था कि समलैंगिक विवाह की अनुमति देने से "बच्चों, परिवार और समाज पर विनाशकारी प्रभाव" पड़ेगा। बहस एक ऐसे देश में महत्वपूर्ण है जो अनुमानित एक करोड़ LGBTQ+ लोगों का घर है। 2012 में, भारत सरकार ने उनकी जनसंख्या 25 लाख रखी थी, लेकिन वैश्विक अनुमानों की गणनानुसार भारत में इनकी जनसंख्या पूरी आबादी का कम से कम 10% - यानि 13 करोड़ 50 लाख से अधिक है। लेकिन दोनों आंकड़ों का कोई जनसांख्यिकी आधार नहीं है, यह बस अनुमान है।
पिछले कुछ वर्षों में भारत में समलैंगिक संबंधों की स्वीकार्यता
भी बढ़ी है। 2020 में एक प्यू सर्वेक्षण में 37% लोगों ने कहा था कि इसे स्वीकार किया जाना चाहिए, जबकि 2014 में यह मात्र 15% था।
इस वाद के तकनीकी पक्ष
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि ऐसी "मेरिज" को किस कानून के अंतर्गत मान्यता दी जाय? चूंकि हर पंथ (इस परिप्रेक्ष्य
में धर्म उचित शब्द नहीं है) के अपने मेरिज एक्ट है और समलैंगिक मेरिज को कोई "पंथ" स्वीकार नहीं करेगा, इसलिए शीर्ष अदालत में क्या होता है इस पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। मुख्य न्यायाधीश इसे "स्पेशल मैरिज एक्ट" में स्थान देने के प्रति उन्मुख लगते हैं। इसको वैधानिक ठहराने के लिए उन्होंने पश्चिमी देशों के न्यायालयों को आधार बनाया है। संसार के 34 देश अब तक समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दे चुके हैं। समलैंगिक विवाह को वैध घोषित करने से गोद लेने, तलाक और संपत्ति हस्तान्तरण पर नियंत्रित करने वाले कई अन्य कानूनों को भी बदलना होगा। यदि ऐसा करना पड़ा तो यह "स्पेशल मैरिज एक्ट" के बाहर, हर समुदाय के वैवाहिक कानूनों में बदलाव अवश्यंभावी कर देगा जो न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के बाहर है। इसीलिए सरकार बार-बार यह तर्क दे रही है की यह विषय न्यायालय (judiciary) का न होकर विधायिका (legislature) का है।
सबसे बड़ा उलटफेर, जो सर्वोच्च न्यायालय करता दिखाई दे रहा है वह है "sex" और "gender" की परिभाषा। आमतौर पर सेक्स को शारीरिक (biological) और जेंडर को सामाजिक (social) मानदंड माना जाता है। इसलिए कोई भी व्यक्ति अपने को अलग "जेंडर" से पहचान (identify) कर सकता है परन्तु अपने को प्रकृति प्रदत्त "सेक्स" के बाहर आइडेंटिफाई नहीं कर सकता। इसका विस्तार करते हुए सुप्रतिष्ठित वैज्ञानिक, राजनैतिक और सामाजिक विश्लेषक डाक्टर आनंद रंगनाथन कहते हैं -
"सेक्स की पहचान गुणसूत्र (chromosome) से होती है। "XX" गुणसूत्र से स्त्री और "XY" गुणसूत्र से पुरूष का निर्माण होता है। ऐसे स्त्री-पुरुष चाहे अपने को कैसे भी "आइडेंटिफाई" करें किन्तु पुरुष गर्भ धारण नहीं कर सकता और स्त्री वीर्य पैदा नहीं कर सकती।
यही वह तकनीकी पक्ष है जहां हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते। एक पुरुष भले ही अपने को "स्त्री" समझे और वैसा ही व्यवहार करें किन्तु वह न तो मासिक अवधि (manstrual cycle) पैदा कर सकता है और न ही "egg" release कर सकता है। इसी प्रकार एक "स्त्री" भले ही अपने को पुरूष समझे वह वीर्य स्खलन "sperm
release" नहीं कर सकती।
कुल मिलाकर समाज और देश की बहुसंख्या समलैंगिक संबंधों के विरुद्ध नहीं है किन्तु समलैंगिक विवाह के विरुद्ध है। दूसरा, यह विषय न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता क्योंकि इसमें अनेक विधि निर्माण और विधि परिवर्तन की आवश्यकता पड़ेगी जो न्यायालय का न तो अधिकार क्षेत्र है और न ही न्यायालय इतने बदलाव करने में सक्षम है।
एक महत्वपूर्ण पहल करते हुए भारत में अधिवक्ताओं के सबसे महत्वपूर्ण संकाय "बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का विरोध करते हुए रविवार (23 अप्रैल) को एक प्रस्ताव पारित किया है। बीसीआई के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्र ने सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) में समलैंगिक विवाह केस की सुनवाई किए जाने पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि इस तरह के संवेदनशील विषय पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रतिगामी प्रमाणित हो सकता है। इसे विधायिका के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए, क्योंकि इसमें कानून निर्माण के अनेक पहलू सम्मिलित हैं।
अधिवक्ताओं के संगठन ने प्रस्ताव में कहा कि भारत विभिन्न मान्यताओं को संजो कर रखने वाले विश्व के सर्वाधिक सामाजिक-धार्मिक विविधता वाले देशों में से एक है। इसलिए बैठक में आम सहमति से ये विचार प्रकट किया गया कि सामाजिक-धार्मिक और धार्मिक- सांस्कृतिक मान्यताओं पर दूरगामी प्रभाव डालने वाला कोई भी विषय सिर्फ विधायी प्रक्रिया से होकर आना चाहिए।